पूर्वांचल की लोकसंस्कृति का एक हिस्सा है ज़्यादातर लोग जब प्रातःकाल सोकर उठते है तो सबसे पहले धरती को स्पर्श करके प्रणाम करते है। इसके बाद अपने दिनचर्या की शुरूआत करते है। ऐसा करके वो धरती के प्रति अपना सम्मान जाहिर करते है। ताकि धरती मैय्या का अनुग्रह और कृपा उन पर यथावत् बनी रहे। भारतीय संस्कृति में प्राकृतिक संसाधनों को देवतुल्य सम्मान देना एक आम बात रही है। धरती, नदियों, पेड़ों को पूजनीय माना जाता है। लेकिन जिस तरह से पश्चिम से आयतित भौतिकवादी मानसिकता और शिक्षा प्रणाली में व्यवहारिकता घट रही है। इस तरह की लोकमान्यताओं में भारी कमी आ रही है। पहले हरे पेड़ काटना वर्जित था। मान्यता ऐसी थी अगर कोई ऐसा करता है तो उसके वंश का नाश हो जायेगा। बहती नदी में कूड़ा-कचरा फेंकना दोष माना जाता था। आज जिस तरह से पर्यावरण के साथ क्रूर मज़ाक हो रहा है। वो सब काम किये जा रहे है जिसे पहले देश की विभिन्न लोकसंस्कृतियों में वर्जित माना जाता था।
महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि, धरती हमारी जरूरतें पूरी कर सकती है लेकिन लालच नहीं। आज सारी मानवता उसी मुहाने पर खड़ी है, जिसमें ज़्य़ादातर लोग भौतिकवाद में अंधी दौड़ में पगलाये हुए है। सभी चीज़ों का मूल्याकंन मांग, आपूर्ति, उत्पादन, उपभोग और आर्थिक संपन्नता के आधार पर हो रहा है। लेकिन इस दौड़ में हम लोग जरा ब्रेक लगाकर भविष्य की झांकी को नहीं देख रहे है। हमें अच्छे धुले-धुलाये कपड़े चाहिए लेकिन इनको धुलने के लिए इस्तेमाल होने वाले डिटर्जेंट, इस्तेमाल होने के बाद भूमिगत जल को खराब कर रहा है। हमें फोर-जी स्पीड़ पर काम करने वाला आईफोन चाहिए। भले ही हमें ये ना पता हो कि फोर-जी स्पीड़ पर आधा घंटा वीडियों देखकर हम उतना ही कार्बन उत्सर्जन कर रहे है जितना कि किसी बीएस-4 गाड़ी को 6 किलोमीटर दौड़ाकर होता है। जब हम यहीं फोन खराब होने पर फेंक देते है। इसका ई-कचरा राजधानी दिल्ली के आसपास के इलाकों (भोपुरा बॉर्डर, सेवाग्राम, लोनी, गगन सिनेमा के पास) में धड़ल्ले से जलाया जाता है। वो भी प्रशासन की नाक के नीचे। इसी फोन की वज़ह से हमारे आंगन में गौरेय्या चिड़िया का आना खत्म हो गया है। लेकिन हमें क्या फर्क पड़ता है हमारे पास फोन है बस इतना काफी है। इसी फोन से व्हॉट्सअप पर पर्यावरण बचाओं के दो-चार मैसेज दो-चार ग्रुप में इधर-उधर करके खुश हो जायेगें। अगर इससे भी चैन ना मिला तो कनॉट प्लेस पर बैनर लेकर मोमबत्तियां जलाकर, जोशीले नारे लगायेगें सरकार और व्यवस्था के खिल़ाफ छाती पिटेगें बस इतना इससे ज़्यादा कुछ नहीं। बच्चों को स्कूल का होमवर्क कराते हुए पेड़ लगाओं के बारे में पढ़ायेगें लेकिन कभी उन्हें ये नहीं बतायेगें कि पेड़ लगाया कैसे जाता है। खाद और पानी की मात्रा कैसे तय की जाती है। हवा जब ज़्य़ादा खराब होगी तो मास्क पहनकर सरकार का गरिया लेगें। लेकिन मजाल है कि रसूख में कमी आये, पास की मदर डेयरी पर ही क्यों ना जाना हो लेकिन स्कूटी लेकर जरूर जायेगें।
अगर हमारी आदतें ऐसी रही तो आने वाला कल बेहद ही भयानक होगा। अगर इसकी झलक देखनी हो तो मैड मैक्स फ्यूरी रोड और कार्बन द स्टोरी ऑफ टुमॉरो जैसी फिल्म आप लोग देख सकते है। आप लोगों की रूह कांप जायेगी। आप लोग सोचने पर मजबूर हो जायेगें कि हम अपनी धरती को किस ओर लेकर जा रहे है। हाँ अगर आप भौतिकवादी ताकतों की चपेट में है और चार्वाक दर्शन आपकी रगों में घुसा हुआ है तो इन फिल्मों से भी आपको कोई खास़ फर्क नहीं पड़ने वाला। पर्यावरणविदों के मुताबिक खतरे की घंटी बज चुकी है। हमारे ग्लेशियर रोज पिघल कर चेतावनी दे रहे है। ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण पूरी पृथ्वी से कीट-पतंगों की तकरीबन 40 फीसदी आबादी खत्म हो चुकी है। हमारे फोन से निकलने वाली रेडियेशन से चिड़ियाओं की अंडे फूट जा रहे है, कई पक्षी अपने घर का रास्ता भटक जा रहे है। ई-वेस्ट से होने वाले प्रदूषण के कारण नवजात बच्चें कई विकारों के साथ म्यूटेंट पैदा हो रहे है। हमारे महासागर रोज कई टन प्लास्टिक का कचरा ढो रहे है। मौजूदा पीढ़ी के फेफड़े प्रदूषण की कालिख से भरे जा रहे है। जलवायु परिवर्तन से कई स्पीशीज़ का नामोनिशान मिट चुका है और हम इतंजार कर रहे है कि सरकार, प्रशासन और व्यवस्था कुछ करेगी।
पश्चिम उत्तर प्रदेश के कई गांव आर्सेनिकयुक्त पानी के लिए अभिशप्त है, जिसकी वज़ह से वहाँ कैंसर के मामले दिनोंदिन बढ़ते जा रहे है। बुंदेलखंड़ में पानी फ्लोराइडयुक्त पानी ने एक पूरी पीढ़ी को विकलांग बना दिया है। लेकिन हम इस ओर सोचे ही क्यों। महानगरों के एसी युक्त बंद कमरों में कॉफी पीते हुए पर्यावरण पर चर्चा करना हमारा शगल बनता जा रहा है। मेट्रोपॉलिटन सिटीज की चकचौंध और उपभोक्तावादी जीवनशैली के सामने पर्यावरण जैसे मुद्दों पर बात करना लोगों को कड़वाहट जैसा एहसास कराता है। आने वाले नस्लें जब आपको कटघरे में खड़ा करेगी और पूछेगी कि, हमारे हिस्से का नीला आसमान कहाँ है ? साफ चमकते पानी से भरी नदी की कलकल क्यों नहीं सुनायी दे रही है ? रूई की तरह हल्की बयार और चहकते पक्षियों के गीत कहाँ गुम हो गये? तब आप लोग क्या जव़ाब देगें कभी सोचा है? वो पूछेगें जब ये सब प्रदूषण की मार झेल रहे थे तब तुम क्या कर रहे थे? तब शायद ही हमारे पास कोई जव़ाब होगा। आने वाली नस्लें हमें कभी माफ नहीं करेगी।
- राम अजोर यादव
एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर एवं सह संपादक ट्रेन्डी न्यूज़
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