खोती सामुदायिकता, बढ़ता एकाकीपन


                                                                                                                

बात ज़्यादा पुरानी नहीं है। आइये आपको फ्लैशबैक में ले चलता हूँ। जगह है उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल क्षेत्र फैजाबाद जिला। कादीपुर जगदीशपुर नाम के गांव में मेरा पैतृक आवास है। बाऊ जी दिल्ली जैसे महानगर में प्राइवेट नौकरी करते थे। स्कूल से मिलने वाली दो महीने की छुट्टियां अक्सर गांव में ही कटती थी। गांव की तकरीबन सभी क्रियाकलाप हमारे लिए विस्मय, कौतूहल और जिज्ञासा का सबब़ हुआ करते थे। गांव के रीति रिवाज़, खान-पान और दिनचर्या ये सभी चीज़े दिल्ली से बेहद अलग हुआ करती थी। उन दिनों गांव में किसी बेटी की शादी होती थी तो, लगभग पूरे गांव में ही उत्सव का माहौल हुआ करता था। उन दिनों टेंट हाउस, बफर सिस्टम और डी.जे. जैसी चीज़ें शायद ही किसी ने सुनी होगी। टोले में अगर किसी के घर बारात आती थी तो, उसकी इज़्जत पूरे गांव के लिए अस्मिता का सवाल बन जाती थी। शादी से पहले पूरे गांव भर से खाट, बिछावन और तख्त बटोरे जाते थे, महावर (आलता) से उन पर लोगों के नाम लिखे जाते थे, ताकि शादी समारोह सम्पन्न होने के बाद उन्हें उनके सही मालिक को वापस किया जा सके। गांव भर से बर्तन इकट्ठे किये जाते थे। उन्हीं का इस्तेमाल शादी का भोज बनाने के लिए किया जाता था।
ग्रामवधूयें द्वारपूजा होने के बाद मंगलाचरण गाते हुए बारात के लिए पूड़ियां बेलती थी। हलवाई के नाम पर गांव का ही कोई जानकार मिठाईयां और दाल भाजी बनाता था, जिसके बदले वो नाममात्र पैसे लेता था। जिनके यहाँ गाय और भैंस लगती थी, वो दूध का योगदान देते थे, ताकि ताज़ी मिठाइयों से बारात का स्वागत हो सके। गांव भर के लड़के बारात को पंगत में बैठाकर पत्तल में खिलाते थे, खाने के लिए बैठी बारातियों की पंक्ति खाना परोसे जाने के बाद तभी खाती थी, जब उनके साथ के किसी बड़े बुजुर्ग ने खाना शुरू कर दिया हो। बारातियों की पंगत खाना खाकर साथ ही उठती थी। पानी पीने के लिए भरूका (कुल्हड़) का इस्तेमाल था। गांव के लड़के खुशी-खुशी बारातियों की जूठन और पत्तल उठाते थे। झाड़ू लगाते थे ताकि बारातियों की दूसरी पंगत को खाना परोसा जा सके। बिटियां की विदाई के वक्त गांव भर की आँखें नम हो जाती थी। कुछ चीज़ों को छोड़कर अब ये तस्वीर गुजरे जमाने की बात हो गयी है, इसके साथ ही सामुदायिकता का भी लोप हो गया है, जिसकी वजह से संवेदनहीनता और संवादहीनता के मामलों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। लोगों ने खुद को एक दायरे में बांध लिया है, वो उससे बाहर निकला नहीं चाहते और ना ही किसी से मिलना चाहते है। पूर्वज़ों की स्थापित परम्पराओं का गला हम लोग खुद दबा रहे है। अब शादी में शरीक होना औपचारिकता मात्र में तब्दील हो गया है। पंगत की जगह बफर सिस्टम ने ले ली है, और मंगलाचारण की मधुर ध्वनि कानफोड़ू डी.जे. की आव़ाज तले दब-सी गयी है। जहाँ शादी जैसे कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए गांव भर का योगदान रहता था, अब उसकी जिम्मेदारी कर्मिशयल टैंट हाउस ने संभाल ली है।
किसी भी समाज़ को मजबूत बनाने के लिए सामुदायिकता आधारिक संरचना का काम करती है। ये ऐसे गुणों का सूत्रपात करती है, जो व्यक्ति को व्यक्ति से बंधे रखता है। ग्रामीण अंचलों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाये तो, शहरी इलाकों में एकाकीपन की समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। ये अपने आप में काफी गंभीर मसला है। शहरी इलाकों में तकरीबन हर चीज़ मशीनी तरीके से काम करती है। संबंध, आत्मीयता और आपसी मेलजोल मेट्रोपॉलिटिन सिटीज् में ना के बराबर होता है। पहले के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में भी ये चीज़े कम हुई है, लेकिन वहाँ बची हुई है। अगर आप पिछले दो-तीन महीने के अखबार पलटेगें तो, ये खबरें काफी आम तरीके से छपी हुई दिखेगीं। बंद कमरे में कोई मर जाता है। लाश सड़कर दुर्गन्ध फैलाने लगती है, गंध आने के बाद ही पता लगता है कि अमुक व्यक्ति मर गया है। कई बार तो ऐसा देखने में आया है कि, आमने-सामने रहने वाले पड़ोसी कई सालों तक एक-दूसरे का नाम तक नहीं जानते। मल्टी नेशनल कम्पनियों में काम करने वाले युवाओं का हाल तो और भी बुरा है। सामुदायिकता के नाम पर वो अपने घर को समय दे दे वहीं बहुत है। उनके पास वीकेंड होता है। उसी दिन उन्हें पता लगता है गली में किसकी शादी हुई और कौन मरा है। हफ्ते भर में दो या तीन दिन ही उन्हें घरवालों के साथ खाना खाने को नसीब होता है। बाकी दिन तो बिचारे रात भर उल्लुओं के तरह जगाकर काम करते है, ताकि अगले फाइनेंशियल ईयर में अच्छा खासा हाईक मिल सके। वापस जब घर पहुँचते है तो दुनिया सोकर जगा रही होती है, और इनका सोने का टाइम हो रहा होता है। वर्चुअल स्पेस ने तो सामुदायिकता के लिए दीमक का काम किया है। पबज़ी, टिकटॉक और व्हाट्सऐप ने एक समानान्तर दुनिया विकसित कर ली है, अक्सर लोग उसी में खोये रहते है।

आमतौर पर सुनने में आता है कि, किसी का सरेराह एक्सीडेंट हो गया। लोग उसे मदद पहुँचाने की बजाये उसका वीडियों बनाते रहे, ताकि सोशल मीडिया पर चंद लाइक और कमेंट इकट्ठे किया जा सके। ये संवेदनहीनता नहीं तो क्या है? 90 के दशक में जिन ट्रेनों में लोग चौबीस घंटे से ज़्यादा का सफर किया करते थे, अक्सर सामने वाली बर्थ पर बैठे लोगों से उनका परिचय हो जाया करता था। कभी-कभार तो रिश्तेदारियां भी निकल आती थी। सफर के दौरान लड़का- लड़की के रिश्ते तय होते तक सुने गये है। अब इसके ठीक उल्ट हो रहा है, लोग कानों में ईयर फोन लगाये हुए, पाइरेटिड फिल्म देखकर सफर काट देते है। ठीक उसी बोगी में उनका कोई जानकार बैठा भी होगा तो, उन्हें इसका पता नहीं चलता। दो साल पहले की बात है, मैं अपनी बेगम के साथ गांव गया था। एक शाम को चाचा जी ने बताया कि, फलां के यहाँ आज भागवद् कथा का उद्यापन है, भोज खाने तुम्हें जाना होगा। ये सुनकर मेरी बांझे खिल गयी। मैं मन ही मन सोचने लगा कि, आज बड़े दिन बाद पंगत में भोज करूंगा। पत्तल और भरूके (कुल्हड़) की शक्ल देखने को मिलेगी। अच्छा खासा चहल-पहल का माहौल होगा। मौके पर पहुँचा तो देखा कि, वहाँ पर बफर सिस्टम से खाना परोसा जा रहा है। देख कर बड़ी निराशा हुई। भौतिकवाद ने स्थापित परम्परा का स्थानापन्न कर दिया। लोगों के चेहरे पर वो आत्मीयता नहीं थी, जो पहले देखा करता था। 

वर्चुअल दुनिया, ज़िन्दगी की भागदौड़ और भौतिकवाद ने लोगों को सामुदायिकता और समाज़ से दूर किया है। व्हॉट्सअप पर बात करने से बेहतर है, समय निकालकर लोगों से मिलिये, प्रत्यक्ष संवाद बढ़ाइयें, लोगों से जुड़िये, समुदाय और समाज के कामों में हिस्सा लीजिए वरना आपको लीलने के लिए एकाकीपन तो है ही।


-        राम अजोर

एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर एवं सह संपादक ट्रेन्डी न्यूज़

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