तुलसीकृत रामचरितमानस और रामायण में अर्न्तनिहित जनसंचारीय सिद्धान्तों एवं प्रतिरूपों का प्रार्दुभाव और सहसंबंधों का विश्लेषणात्मक अध्ययन


                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                   -राम अजोर

पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम् |
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् | ”

अर्थात् पुस्तक में रखी विद्या (ज्ञान) और दूसरों के हाथों में दिया गया धन, यदि समय पर काम ना आये तो वह व्यर्थ है। ज्ञान की प्रासंगिकता (Relevance) बनाये रखने और उसे आद्यातित (Updated) करने के लिए सदैव शोध और अनुसंधान की आवश्यकता होती है। ज्ञान का प्रवाह बौद्धिक वर्ग से लेकर जनसामान्य तक प्रवाहित होता है तो, पुस्तकों में संकलित ज्ञान कालजयी हो जाता है। भारतीय जनमानस में ऐसी ही कालजयी कृति है, रामचरितमानस। सूक्ष्म दृष्टि से देख जाये तो आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के कई विषय रामचरितमानस में (प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष) परिलक्षित होते है। जैसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial intelligence), वैमानिकी (Aeronautics), लोक प्रशासन (Public administration), प्रबन्धन (Management), मनोविज्ञान (Psychology), अभियान्त्रिकी (Engineering), क्वांटम सिद्धान्त (Quantum theory), नृवंशविज्ञान (Ethnography), स्थापत्य कला (Architecture), और खगोल शास्त्र (Astronomy) आदि विषयों से जुड़े गुणधर्मों (Attribute) और तात्विकता (Elemental’s) का पर्याप्त प्रार्दुभाव और सहसंबंध मानस में आलोकित होता है।  
रीति, नीति, युद्धशास्त्र और कूटनीति से जुड़े प्रश्नों के लिए रामचरितमानस, प्रत्यक्ष प्रसंगों के माध्यम से उत्तर उपलब्ध करवाता है। शोध अध्यापन और पठन पाठन की दृष्टि से पाश्चात्य जगत में साहित्यिक महाकाव्यों इलियड और ओडिसी को पर्याप्त स्थान मिला है, जबकि दूसरी तरफ मानस इससे तकरीबन अछूता रहा है। मिसाल के तौर पर मानस के उत्तरकांड में राम-भरत संवाद में लोक प्रशासन, सैन्य शास्त्र (Military science) और न्याय व्यवस्था (Judicial system) के मूलभूत मन्त्रों (Fundamental Formula) का विवरण मिलता है। दूसरी ओर बालकांड में जब राजा के चयन की बात आती है तो, एक आदर्श लोकतान्त्रिक संरचना (Democratic structure) कैसी होनी चाहिए, इसकी भी झलक मिलती है। मानस को केन्द्र में रखते हुए, जनसंचार के अकादमिक पक्षों पर अनुसंधान कार्य ना के बराबर हुआ है। अकादमिक दृष्टि के आलोक में जनसंचार का ज्ञात इतिहास तकरीबन 110 सालों का रहा है। और हमारे देश में पाश्चात्य मान्यताओं द्वारा पोषित इस विषय में हो रहे पठन-पाठन को 77 साल हो गये है। जनसंचार के जिन सिद्धान्तों और प्रतिरूपों को पश्चिमी शिक्षा जगत ने विकसित किया, वे सभी जनसंचारीय सिद्वान्त और प्रतिरूप किसी न किसी रूप में हमारी पुरातन परम्परा में निहित थे। वर्तमान में अन्तर इतना भर है कि उन्हें उस समय किसी और नाम से जाना गया या फिर उन अवधारणाओं को अन्वेषित नहीं किया गया।  कम्युनिकेशन के लिए हिन्दी में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है, वो है संचार। इसका अर्थ है संचारणीय अर्थात् सदैव चलायमान संवाद की अनन्त प्रक्रिया। कम्युनिकेशन से जुड़ी, पाश्चात्य अवधारणायें अपने केन्द्र में अधिकांशतः चेतन वस्तुओं को रखती है यानि कि मानव। जबकि हमारी पौराणिक संस्कृति की आदिकालीन स्थापित मान्यतायें संचार के केन्द्र में जड़ और चेतन दोनों को ही पर्याप्त स्थान देती है। कालिदास के महाकाव्य मेघदूतम् का नायक यक्ष बादलों से संचार स्थापित कर लेता है। हरण होने के बाद सीता पेड़ों, नदियों और पाषाणों को दुहाई देती है। नदियां, पत्थर, पेड़, पहाड़, पशुपक्षी और प्रकृति आदि। ये सभी कोई ना कोई संदेश देते है। यदि हम अपने महाकाव्यों और ग्रंथों की औऱ दृष्टिपात करे तो, ऐसे ही कई उत्कृष्ट जनसंचारीय परिघटनायें आलोकित होती है। जिनके समक्ष पाश्चात्य अवधारणायें बेहद ही बौनी है। हमारे धर्मशास्त्रों, साहित्य और दर्शन में जनसंचारीय तत्वों का पर्याप्त हस्तक्षेप रहा है। बहुत से जनसंचार कर्मी, संचार शोधार्थी और विज्ञापन जगत के पेशेवर शायद इस तथ्य से अनभिज्ञ होगें कि, विश्व का सबसे पहला विज्ञापन हमारे देश से ही निकला है। मध्य प्रदेश के मंदसौर में स्थित गुप्तकालीन सूर्य मंदिर में इसकी झलक देखने को मिलती है। विश्व का पहला विज्ञापन सिंदूर और साड़ी का था।
दूसरी ओर भरत मुनि ने अपने नाट्य शास्त्र में पाश्चात्य संचारशास्त्रियों से बहुत पहले अशाब्दिक संचार (Non-Verbal Communication) की नींव रख दी। नारद मुनि द्वारा रचित भक्ति सूत्रों में जनसंचार के आदि-सिद्धान्तों के दर्शन होते है। पश्चिम जगत के अधिकांशतः जनसंचारीय शोधों में कहीं ना कहीं पूंजी, भौतिकता और व्यवसाय को केन्द्र में रखा जाता है, ताकि उपभोक्ताओं की प्रवृत्ति भांपकर वस्तु सेवा और बाज़ार को उसके अनुकूल ढ़ाला जा सके। ऐसे में पश्चिम की इन स्थापित संचारीय मान्यताओं से भारतीय महाकाव्यों और साहित्य का तादाम्य कैसे स्थापित हो, इस पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। पाश्चात्य जगत की अकादमिक चकाचौंध की वजह से, शोध का ये क्षेत्र तकरीबन अनछुआ रह गया है। एक बार अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि, मैंने भगवद्गीता को अपनी प्रेरणा का मुख्य स्रोत बनाया है। यही मुझे शोधों के लिए मार्गदर्शन देती है। यही मेरी थ्योरिय़ों की जनक है। मानस में जनसंचारीय सिद्धान्त और प्रतिदर्शों का हस्तक्षेप मूर्त और अमूर्त दोनों दशाओं में स्थित है। बृहद दृष्टि से देखा जाये तो मानस में पर्याप्त मात्रा में पाश्चात्य जगत द्वारा स्थापित जनसंचारीय सिद्धान्तों एवं प्रतिरूपों का प्रार्दुभाव और सहसंबंधों का बिंब आलोकित होता है। जनसंचारीय शोध में भारतीय धर्मग्रंथों को इस नजरिये से बहुत कम ही आंका जाता रहा है। मानस की विभिन्न घटनाओं, संवादों और छंदों में पाश्चात्य जनसंचार के सिद्धान्तों और प्रतिरूपों के प्रार्दुभाव और सहसंबंधों का प्रभाव परिलक्षित होता है। ये देखना बेहद ही रोचक होगा कि, इस महाकाव्य में जनसंचारीय सिद्धान्तों का सहसंबंध (Co-relation) किस तरह का है (Linear, Non-linear, Positive, negative, partial, simple, or multidimensional), या फिर किन जनसंचारीय प्रतिरूपों के कौन-कौन से चरों (Variables’) का प्रार्दुभाव मानस के काव्य में दृष्टिगोचर होता है, और उनमें आवृत्यात्मक, गत्यात्मक और स्थैतिक चरों अवस्थिति क्या है। उदाहरण के तौर पर रामायण में राम द्वारा सीता परित्याग की परिघटना में किनकेड (1978) द्वारा प्रतिपादित संचार के कनर्वजेंस प्रतिरूप के दर्शन होते है, जहाँ पर रामायण के दो गौण पात्रों की मनोवैज्ञानिक वास्तविकता के दर्शन संवाद के माध्यम से होते है, जबकि दूसरी ओर भौतिक यर्थाथ कुछ और ही होता है। लंका में रहने के कारण अयोध्या का एक नागरिक सीता के सतीत्व पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। इसके बाद से ही सीता परित्याग के दौरान होने वाली परिघटना में किनकेड कनर्वजेंस प्रतिरूप सक्रियता से काम करता दिखता है। सीता के लंका में रहने की जानकारी (Information) को लेकर उनके सतीत्व पर संदेह की समझ (Perceiving) बनती है। इसी मुद्दे को लेकर अलग-अलग तरह की व्याख्यायें (Interpret) बनती है। इस तरह की व्याख्या से सीता से सतीत्व पर संदेह की आम लोगों के बीच एक खास़ समझ (Understanding) बनती है, जिस पर भरोसे (Believing) के हालात बनते है। 

सामूहिक निर्णय (Collective Action) के नाम पर राम को सीता का परित्याग करना पड़ता है। इस मुद्दे को लेकर सामूहिक निर्णय (Collective Action) के नाम पर राम सीता का परित्याग कर देते है। राम के इस निर्णय पर विरोध के स्वर नहीं बनते क्योंकि लोगों के बीच सामूहिक निर्णय के बाद इस पर एक आपसी समझौता (Mutual Agreement) कायम हो जाता है। राजाज्ञा के कारण अयोध्यावासियो में आपसी समझ (Mutual Understanding) बनती है और वे लोग इसे सहज तरीके से लेते है। इस तरह से हम देखते है कि, दो पात्रों के वार्तालाप से झलकती मनोवैज्ञानिक वास्ताविकता किस तरह भौतिक यर्थाथ को बदलती है और रैखिकीय ढ़ंग (Linear way) से होते हुए, ये सामाजिक वास्तविकता (Social Reality) को रूप धारण कर लेती है।
                                                                                        मानस में एक और सुन्दर प्रसंग निकलकर आता है। जिसमें ग्रामवधूओं और सीता के बीच अशाब्दिक संचार (Non-Verbal Communication) का भाव-भंगिमा (kinesics) वाला मॉडल लागू होता है।

कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।।
सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी।।
तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचित बरबरनी।।
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी।।
सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे।।
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी।।
खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि।।
भइ मुदित सब ग्रामबधूटीं। रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं।।
                                                                                                        (दोहा संख्या-117, अयोध्याकांड)

वनवास पाकर जब सीता राम और लक्ष्मण वनगमन के लिए निकलते है तो, विश्राम के लिए थोड़ा रूकते है। जैसे ही ग्रामवधूओं को ये ज्ञात होता है। वे मिलने चली आती है और सीता से पूछती है, करोड़ों कामदेवताओं की शोभा को लज़्जित करने वाले, ये सुन्दर मुख वाले तुम्हारे क्या लगते है। ग्रामवधूओं के ये स्नेहमय वचन सुनकर सीता मन ही मन मुस्काती है। संकोचवश उनकी नज़रे झुक जाती है। लाज़ के साथ ठीक वैसा ही प्रेम स्पंदित होता है, जैसा मृग के छौनों के नयनों में होता है। कोयल की तरह मधुर वाणी में वो कहती है। वो जो सहज है, सुन्दर है और मन के भाने वाले गौरवर्ण के है, उनका नाम लखन है, वो मेरे छोटे देवर है। इसके बाद अपने चन्द्रमुख आँखों से ढ़क लिया और भौहें टेढ़ी करके ग्रामवधूओं को ये बता दिया कि, वो ही (राम) मेरे प्रियतम है। खंजन पछी की तरह नयन तिरछे करके सीता ने इशारा करके महिलाओं को राम के बारे में बता दिया। ये देखकर ग्रामवधूयें बहुत प्रसन्न हुई, मानों कि रंकों को खज़ाना प्राप्त हो गया हो। अब इस प्रसंग को अशाब्दिक संचार के भाव-भंगिमा वाले मॉडल पर परिकलित करे तो, सीता कई शारीरिक मुद्रायें तीव्र संचार कर रही है जैसेः- लज्जावश होकर एकटक धरती को देखना (Body Gesture)। मन की प्रसन्नता मुस्कुराहट बनकर मुख पर प्रतिस्फुटित होना (Facial Expression)। संकोचवश नज़रों का झुकना (Eye Contact)। कोयल की तरह मधुर वाणी (Voice Modulation), और भौहें के इशारों से राम को अपना पति बताना। अशाब्दिक चयन का इतना गहरा विश्लेषण रामचरितमानस में किया गया है। मानस की रचना 15 शताब्दी के उत्तरार्ध  में की गयी थी, जबकि अशाब्दिक संचार (Non-Verbal Communication) के भाव-भंगिमा (kinesics) वाले मॉडल का पाश्चात्य जगत में ज्ञात इतिहास 1952 में माना गया है, जिसके प्रणेता ख्याति लब्ध एंथ्रोपॉलिजिस्ट रे बर्डविशेल है। आइये बालकांड के एक ओर प्रसंग पर दृष्टि डालते है। जनकपुर में स्वयंवर के दौरान राम के द्वारा शिव-धनुष टूट जाता है। इस बीच लक्ष्मण और परशुराम के बीच गहमागहमी के माहौल बन जाता है। इस दौरान संवाद के प्रक्रिया अपने चरम पर होती है। 

लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥  (1)
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा (2)
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही (3)
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥ (4)
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ॥ (5)
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू (6)

दोहे की इन श्रृंखलाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है कि, यहाँ पर ऑसवुड और विलियम श्रेम का 1954 जनसंचार मॉडल सहज ही आलोकित होता है। इस प्रसंग में संचारिक तात्विकता के वे सभी अंश निहित है, जो इस प्रतिरूप के क्रियान्वयन के आवश्यक है।
एक तरफ लक्ष्मण है और दूसरी तरफ परशुराम। दोनों ही पात्र संवादों के माध्यम से तेजी से संदेशों का आदान-प्रदान कर रहे है। जैसे जैसे ये चक्र तेजी से घूमता है। प्रसंग में स्थितियां क्रोध आवेश में उत्तेजित होती जाती है। एक पात्र संदेश में कूटबद्ध कर रहा है। दूसरा उस संदेश को डिकोड करके अर्थ समझकर, एक नया संदेश का कूटीकरण कर, दूसरे पात्र के पास भेजता है। संदेश पाकर दोनों ही पात्र क्रोधित होते चले जाते है। मात्र कुछ ही उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है। रामायण और रामचरितमानस में पाश्चात्य जनसंचार जगत द्वारा अन्वेषित जनसंचारीय सिद्धान्त और प्रतिरूप लागू होते है। ये तथ्य विमर्श का विषय जरूर हो सकता है कि, भारतीय विद्वानों ने इन्हें क्रमबद्ध ढ़ंग से श्रेणीबद्ध क्यों नहीं किया। संचार के क्षेत्र में भारत के पास ऐसा बहुत कुछ है, जिसके बारे में पाश्चात्य़ अकादमिक संचार शोधार्थी सोच भी नहीं सकते है जैसेः- परासंचार, विचारसंक्रमण, और अतीन्द्रियसंवाद। इसलिए आवश्यकता है वापस अपने पौराणिक साहित्य की ओर लौटने की और उनमें निहित जनसंचारीय दशाओं को जानने की।


-        राम अजोर

एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर एवं सह संपादक ट्रेन्डी न्यूज़

Post a Comment

0 Comments