श्रीधाम वृन्दावन ऐसा
स्थान है जहाँ पर ज्ञान धूल फांकने लगता है और भक्ति को परिपूर्णता मिलती है प्रेम
से। ऐसे धाम की अधिष्ठात्री देवी है श्रीराधा रानी। श्रीजी परांबा है, ठाकुर जी की
आद्याआह्लदिनी शक्ति है। इनका नाम स्वयं में महामन्त्र है। जिसके उच्चारण मात्र से ह्दयागार
आनंद मिलता है। जिसके स्मरण मात्र से मन को अनन्त दैवीय शांति मिलती है। कृपामयी,
आनंदमयी, स्नेहमयी, करूणामयी, प्रेममयी, दयामयी ब्रह्माण्ड़ की समस्त प्रशंसाओं से यदि उनकी
स्तुति की जाये तो भी कम है। उनके चरण कमलों की कृपा से नवधा भक्ति भक्तों के
मनमंड़ल में वास करती है। ठाकुर श्री बांके बिहारी भी इनके मोहपाश में बंधे रहते
है। जहाँ जहाँ ये जाती है वहाँ श्याम प्यारे स्वयं पहुँच जाते है। कान्हा प्राण है
तो किशोरी जी श्वास। इन्हीं कारणों से कृष्ण को राधावल्लभ कहते है। राधा नाम स्वयं
में ही प्रेम की उत्कृष्टता है। ये मुरारी के वाम हिस्से में विराजने वाली शक्ति
है। जहाँ निश्छल प्रेम और निस्वार्थ भाव से कान्हा का नाम लिया जाता है चुबंकीय
आकर्षण की तरह वहाँ कीर्तिदा सुता खिंची चली आती है। मधुसूदन को कोई भी बड़ा कार्य
करना हो तो, उन्हें वृषभानुनंदिनी का ही आवाह्न करना पड़ता है। श्री गिरिराज
गोवर्धन को धारण करने से पहले नंदनन्दन को गौरांगी का ही स्मरण करना पड़ा था। इसी
कारण गोविन्द ने अपने बांये हाथ की छोटी उंगुली से श्री गिरिराज को धारण किया था,
क्योंकि उनकी शरीर के बांये हिस्से में स्वयं श्यामा जी विराजमान थी। जिसकी पुष्टि
स्वयं भगवान योगेश्वर करते है। समस्त ब्रज राधामय है कुंज, निकुंज, कुण्ड, उपकुण्ड,
वन, उपवन हर जगह ब्रजाधिपे का नाम गुजांयमान है। राधे नाम की महिमा का ऐसा प्रताप
है कि शुकदेव को बह्म का साक्षात्कार हुआ। निकुंजा जी का नाम जिह्वा पर आते ही
भक्तों के शरीर में दैवीय रोमांच दौड़ जाता है। आंखों से प्रेम अश्रुओं की झड़ी लग
जाती है। मन ही मन गोपालप्रिया का स्मरण वाली मानस भक्ति भी अत्यन्त फलदायी होती
है। निश्छल समर्पण भाव के चलते भक्त की एक आवाज़ पर ये भागी चली आती है।
यहीं पर
एक दैवीय प्रसंग निकलकर आता है। बरसाने में एक सन्त थे। वे नित्य निकुंजविलासिनी
की सेवा में लीन रहते थे। दर्शन, नाम सुमिरन, मानस चिंतन जैसे माध्यमों श्रीराधा जी
को रिझाते थे। मानव शरीर होने के कारण जरा व्याधि और आयु के विमुक्त ना हुए थे। एक
दिन उनके मन में विचार आया कि, श्री किशोरी की सेवा करते हुए इतने दिन बीत गये।
लेकिन मैं अभागा आज तक उनकी सेवा में कुछ नहीं दे पाया। क्या दिया जाये। इसी
पशोपेश में उलझे हुए थे। क्यों ना श्रीजी के सेवा में उन्हें पोशाक भेंट की जाये।
ये उत्तम विचार आते ही, बाबा बाज़ार चले गये। नरम और मखमली कपड़ा ले आये। और लगे
उस लाल पीले और हरे कपड़े को सिलने। आयु ज़्यादा होने के कारण साफ नज़र नहीं आता
था। कई बार उंगलियों में सुई चुभी। जितनी भी बार सुई चुभती उतना ही वो किशोरी जी
को याद करते, जिससे उनका उत्साह बढ़ जाता। मन में सिर्फ एक ही भाव था कि नित्य
विनोदविलासिनी मेरे हाथ के द्वारा सिए वस्त्र धारण करेंगी। पोशाक सिलकर तैयार हो
गयी। बाबा के मन में उमंग और उल्लास हिलोरे मार रहा था। मन ही मन स्वयं से बातें
करते हुए जा रहे थे कि, आज अलबेली सरकार मेरी बनायी पोशाक से सुज्जित होगी। दूर से
आती मंगला आरती की आव़ाज साफ सुनी जा सकती थी। बुढ़ापे के बोझ ढ़ोते बाबा
धीरे-धीरे मदन मोहिनी के दर पर पहुँचे। दरबार में जाने के लिए सीढ़ियां बहुत चढ़नी
पड़ती है। चार-पाँच सीढ़ियां ही चढ़े होगें। घुटने का दर्द बढ़ने लगा और सांस
फूलने लगी। थोड़ा सुस्ताने के लिए बाबा एक तरफ बैठ गये और लगे सोचने इसी तरह रहा
तो श्रीजी पास पहुँचने में काफी समय लग जायेगा। बुढ़ापा मनुष्य को पस्त कर देता
है। इसी उधेड़बुन में बाबा लगे हुए थे। इतने में ही नक्षत्र मंड़लों सी आभा समेटे
हुए, एक लाली फुर्ती के साथ ऊपर से सीढ़िय़ों पर कूदती हुई नीचे आती है, और बाबा के
पास आकर ठहरती हुई कहती है “बाबा या कपड़ा मोय दे दे, मोपे खूब
सोहायेगें” बाबा पोशाक को पीठ पीछे छिपाते हुए कहते है “या कूं तौ मैं लाड़ली जी की सेवा में, ल्याह हूँ तौकों काय दे देयूं” इतने में लाली वो जोर जब़रदस्ती करके बाबा से, वो रंगबिरंगी पोशाक छीन
लेती है और वापस ऊपर की ओर भागकर सीढ़ियां चढ़ती हुई गायब हो जाती है। इतना होने
पर बाबा फूट-फूटकर रोने लगते है। इतनी मेहनत से पोशाक सिली थी, कृष्ण ह्दयनिवासिनी
की सेवा के लिए। वो भी एक बच्ची छीनकर ले गयी। बाबा का विलाप बढ़ने लगा। श्रीजी के
दरबार की सीढ़ियों पर लोगों का जमघट लगने लगा। शोर-शराबे की आव़ाज सुनकर त्रैलोक्य
सुंदरी की सेवा में लगे गोस्वामी नीचे उतरकर आते है। और सारी घटना सुनने के बाद
बाबा को दिलासा देते हुए समझते है कि, जो हो गया सो हो गया। अब ऊपर चलकर
श्रीप्रिया जी के दर्शन करो। तीन-चार युवक बाबा को सहारा देकर रासरासेश्वरी के
दरबार में ले आते है। बाबा जैसे अपनी धुंधली आँखों से ब्रजनंदिनी के विग्रह को
निहारते है तो उनकी आँखों से आंसुओं की धार फूट पड़ती है। श्रीजी ने वहीं वस्त्र
धारण किये हुए होते है, जो बाबा ने सिले होते थे। बाबा मन ही मन कहते है, “
हे अलबेली स्वामिनी राधा, मुझ अभागे के लिए दौड़कर आने का कष्ट
क्यूँ किया, मैं तो ये पोशाक आपकी ही सेवा में ला रहा था।”
इतने में ही बाबा के मानसिक धरातल पर श्यामा जू के दैवीय स्वर गूंजते है “बाबा प्रेम पाने के लिए दौड़ना ही पड़ता है” तो ऐसी
है हमारी लाड़ली जी, प्रेम की महीन सी डोर से बंधी चली आती है।
वृषभानु-दुलारी जय राधे। श्री कीर्ति-कुमारी
जय राधे॥
ललिता-सखि-प्यारी जय राधे। सर्वोत्तम नारी जय
राधे॥
श्रीमाधव-भामिनि जय राधे। निष्कामा कामिनि जय
राधे॥
पद गज-गति-गामिनि जय राधे। पावन रस-धामिनि जय
राधे
- राम अजोर
एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर एवं सह संपादक ट्रेन्डी न्यूज़
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