Will PM Modi be able to become a Super man or National Prophet For India?
क्या महामानव बन पायेगें पीएम मोदी ?
दुनिया में कई सिद्धान्त निर्विवादित रूप से पढ़े-पढ़ायें और स्वीकार्य किये जाते है। कार्ल मार्क्स का पूंजीवाद, सिग्मंड फ्रॉयड के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त और डार्विन का विकासवाद। मार्क्स की ही परिपाटी में पैदा हुए उनके वैचारिक वंशज, इटैलियन नागरिक एंटोनियो ग्राम्स्की। उन्होनें दुनिया को एक सिद्धान्त दिया जिसे हेगोनिक्ज़्म, अधिपत्यवाद या वर्चस्ववाद के सिद्धान्त के नाम से जाना गया। इस सिद्धान्त के मुताबिक सत्तासीन व्यक्ति सदैव अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए पूंजीवादी ताकतों, प्रशासनिक संस्थानों, सांस्कृतिक संस्थाओं और मीडिया को अपने वश में करके, बिना किसी बाह्य जोर जब़रदस्ती के अपनी विचारधारा, अपने चेहरे और अपनी छवि चमकाने के लिए संस्थानिक दोहन करता है। ये प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक ये होगेनिक संस्कृति या यूं कहिये वर्चस्व के लिए तैयार किया गया छलावरण जनसामान्य के जहन् में ना उतर जाये और आम जनता उसे सहज़ ही स्वीकार ना कर ले।
भले ही आज पीएम मोदी दक्षिणपंथी ताकतों के बड़े रहनुमा बनकर उभरे है, लेकिन कहीं ना कहीं वो इस वामपंथी फॉर्मूले का जमकर इस्तेमाल भी कर रहे है। इस फॉर्मूले को अपनाने के पीछे उनकी कई मजबूरियां भी जुड़ी हुई है जिसके चलते उन्हें हर बार अपनी छवि चमकाने के लिए मार्केटिंग, ईवेंट मैनेंजमेंट, ब्रॉडिंग वाले पाउडर की जरूरत होती है। महामानव बनने के लिए उनकी छटपटाहट हर मंच पर साफ दिखाई देती है।
आज सवाल ये नहीं है कि क्या पीएम मोदी भारतीय राजनीति के कालजयी पात्र बन पायेगें? बल्कि सवाल तो ये है कि भारतीय राजनीति के कालजयी पात्र बनने के लिए आगे वो किन मार्केटिंग तकनीकों का इस्तेमाल करेगें? कहीं ना कहीं पीएम मोदी खुद को नेहरू, महात्मा गांधी और इन्दिरा गांधी वाली कतार में देखना चाहते है। काफी हद तक राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व के मॉकटेल ने उनके लिए इस कवायद को आसान जरूर कर दिया है। बात करते है उनकी मजबूरियों की, आखिर क्यों उन्हें हर मोर्चे पर छवि चमकाने वाले स्टंट करने पड़ते है ? जिस विषबुझे राजनैतिक धरातल से पीएम मोदी का पोषण हुआ है। उसमें युगपुरूषों का सर्वथा अभाव रहा है। जिसके चलते इस वैचारिकता से उपजे राजनैतिक और सांस्कृतिक संगठनों को मजबूरन अपने कार्यालयों में महात्मा गांधी, सरदार पटेल और भगत सिंह के चित्र लगाने पड़ते है। कुल मिलकर ये है कि उधारी के आदर्श पुरूषों की तस्वीरों से कार्यालय सजा रखे है। इतिहास के छात्र ये बात अच्छे से जानते होगें कि जिन महान व्यक्तित्वों का हमने जिक्र किया, उनके विचार पीएम मोदी का वैचारिक पोषण करने वाली संस्था से एकदम उल्ट धुरी पर थे।
दूसरी और गुजरात दंगों में उनका नाम उनकी छवि चमकाने के लिए बड़ी अड़चन था। 2014 के आम चुनावों से पहले जनवादी और साफ-सुथरी छवि बनाने और लोगों से कनेक्ट होने के लिए पीएम मोदी की मार्केटिंग टीम को किसी ऐसी चीज़ की जरूरत थी। जिससे देश का तकरीबन हर नागरिक जुड़ सके। इस परेशानी को चाय ने दूर कर दिया। क्योंकि एकमात्र ये ऐसी चीज़ थी, जो भारत में हर जगह इस्तेमाल होती थी। सो उनके लिए चायवाले का आवरण एकदम बेहतरीन पॉलिटिकल टूल था जिसने अपना काम बखूबी किया।
इसके बाद उन्होनें बेहद संवेदनशील संस्था को भुनाया ये थी भारतीय सेना। किसी भी राष्ट्र का नागरिक भावनात्मक रूप से अपने देश की फौज से जुड़ रहता है। अगर देश की सेना कहीं गुपचुप तरीके से हमला करके आती है तो इसकी बानगी क्लासीफाइड फाइलों में दर्ज की जाती है। चलो मान लिया जाये कि कुछ हद इसकी खब़रे सुर्खियां भी बनती है। अगर सेना के कोवर्ट ऑप्रेशंस को सियासी मंचों पर गला फाड़-फाड़कर कैश किया जाये, जवानों के शौर्य का ताज एक व्यक्ति के सिर बांधा जाये, इसे आप लोग क्या मानेगें? ये अपने आप अधिपत्यवाद के लक्षण है। इस स्टंट का सीधा फायदा ये है कि मौका मिलने पर वोट तो दूह लिये जाये। अगर कोई इस हरकत का विरोध करे तो उसे देशद्रोही बताकर सेना की वीरता पर प्रश्न करने वाला करार दे दिया जाता है। चूंकि देश की जनता सेना से आत्मीय रूप से जुड़ी हुई है तो, वो भी उस मौलिक प्रश्न उठाने वाले के प्रति मुखर हो उठती है।
जनसंचार में एक थ्योरी है स्पाइरल ऑफ साइलेंस जिसके मुताबिक अल्पमत विचारवाहकों की आव़ाज को अनसुना कर दिया जाये। जो विचारधारा बहुमत में फैली हुई है, उसकी गूंज के आगे समालोचकों के स्वर फीके पड़ने लगते है। आज पूरे देश में स्पाइरल ऑफ साइलेंस पूरी तरह से लागू है। आज देश की सियासत प्रयोगशाला से ज्यादा कुछ नहीं है और देश की आम जनता पॉलिटिकल स्टंटों के लिए गिनी पिग है। रोज कार्यक्रमों में टेली प्रॉम्पटरों से पढ़कर लोकलुभावन लच्छेदार शब्दों से एक ही स्वर फूटता है। संवैधानिक संस्थानों में स्वायत्ता शब्द अब एक मज़ाक से ज़्यादा कुछ नहीं रहा गया। ये कहानी आज की नहीं, देश आजाद होने से अब तक जस की तस बनी हुई है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि अब ये क्रूर मज़ाक दिखने लगा है। सीबीआई, आरबीआई जैसी संवैधानिक संस्थानों की स्वायत्ताशील शुचिता तकरीबन खंड़ित हो चुकी है। वर्चस्ववाद की द्यूत क्रीड़ा में इनकी विश्वसनीयता दांव हार चुकी है। अधिपत्यवाद की इस वेदी में सबसे बड़ी बलि चढ़ी है भारतीय मीडिया जगत की। भारतीय मीडिया खासतौर से इलैक्ट्रॉनिक मीड़िया इस समय रीतिकाल 2.0 के दौर से गुजर रहा है। जहाँ दरबारी पत्रकारों को स्तुतिगान करने से फुर्सत नहीं है। 24 घंटे टेलीविज़न स्टूडियों में रीतिकालीन दरबार सजा रहता है, जहाँ पर व्यक्तिविशेष की महिमामंडन के अलावा कुछ भी नहीं प्रसारित होता है। मीडिया की इस नाकारा हरकत से लोगों के दिमागों में एक खास तरह का विचार रोपा और बोया जाता है, जिसके बाद वो आलोचना करना भूल जाते है। व्यवस्था से सवाल पूछने की उनकी कुव्वत को मीडिया चैनल पहले ही बधिया देते है। और सामने लाते है ऐसी तस्वीर जहाँ हर कोई सतयुग में जीता दिखाई देता है। मीडिया चैनलों ने पीएम मोदी को युगपुरूष तो बना दिया, अब बस उन्हें कल्कि का अवतार बताना बाकी रह गया है। अगर सारे चैनल एक स्वर में एक ही राग आलाप रहे है तो, ये समझ लेना चाहिए कि कहीं ना कहीं गड़बड़ है।
हालात तो इतने बदतर हो गये है कि अगर मोदी सरकार किसी फैसले पर बोल्ड, हिट विकेट, कैच आउट और रन आउट होती है तो, मीडिया उस बॉल को नो-बॉल करार देती है। इसी कारण मीडिया की जवाबदेही क्लीन स्वीप होती दिख रही है। ये बात मानी जा सकती है कि पीएम मोदी ने कुछ आमूल-चूल फैसले लिये। धारा-370 को हटाना और तीन तलाक पर उनकी कैबिनेट का फैसला एकदम बेहतरीन रहा। रीतिकालीन 2.0 मीडिया ने इसे अच्छे से स्टूडियों में बांचा। यानि कि पीएम मोदी की छवि बनाने के लिए संवैधानिक संस्थायें और मीडिया स्वाहा। मार्केटिंग टूल्स, इवेंट मैनेजमेंट जैसी इमेज ब्रॉडिंग करने वाली तकनीकों ने देश के आम नागरिकों की हालत सावन के अंधे सी कर दी है। उनके दिमाग में सिर्फ एक ही नाम के शब्द जबरन घुसेड़े जा रहे है। इन बिचारे को तो ये भी नहीं पता मनोवैज्ञानिक तरीकों से उनके दिमाग से साथ छेड़छाड़ की जा रही है। वो जो सोचते है, वो उनकी मौलिक और खुली सोच नहीं उनके साथ बौद्धिक षड़्यन्त्र हो रहा है। दूसरी ओर कुछ आत्म मुग्ध लोगों का समूह है, जो मौजूदा सरकार को अपना मसीहा मान बैठा है। इन लोगों ने मीडिया जगत के रीतिकाल 2.0 का मुकाबला करने के लिए भक्तिकाल 2.0 की कमान संभाल रखी है। इन लोगों की पीठ सरकारी तन्त्र की चाबुक से रोज़ाना छलनी होती है। लेकिन फिर भी खीस़े निपोरते हुए ये वर्ग आस्थावान बना हुआ है।
पीएम की हेगोनिक्ज़्म की इस कवायद में ये लोग खास भूमिका का निर्वाह करते है। इन्हीं लोगों ने हाउड़ी मोदी इवेंट को युगान्तकारी करार दिया और कहा कि ट्रम्प के साथ खड़े होकर पीएम मोदी ने भारत की छवि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत की। जबकि कड़वी सच्चाई ये है कि अमेरिकी जनता के बीच डोनॉल्ड ट्रम्प की छवि एक बदमिज़ाज विदूषक से ज़्यादा कुछ नहीं है। भारतीय मूल के लोगों के खर्चें से हुए (जैसा कि बताया गया) इस कार्यक्रम में डोनॉल्ड ट्रम्प और मोदी छवि चमकाने के लिए ही आये थे। ऐसे में कुछ सवाल उभरते है क्या ऐसी कवायदों से भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य मिलेगी\? क्या इस तरह के इवेंट देश को न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में शामिल करवा पायेगें? जव़ाब है, नहीं।
कहानी वापस से यू-टर्न लेकर वर्चस्ववाद के आस-पास आ घिरती है। आज पीएम मोदी की अधिपत्यवादी हरकतों के चलते लोगों का ध्यान बेरोजगारी, डगमगाती अर्थव्यवस्था, चरमराता बैकिंग ढांचा, रूपये का अवमूल्यन, मंहगाई, लचर श्रम कानून की ओर नहीं जा रहा है। दूसरी ओर उनके प्रति आस्थावान लोगों का उनसे मोहभंग होता है या नहीं? वो युगपुरूष या महामानव बन पायेगें या नहीं? इसका फैसला इतिहास करेगा लेकिन जो कट्टरता और अंधराष्ट्रवाद के बीज़ पीएम मोदी के कार्यकाल में बोये जा रहे है उसका खामियाज़ा देश की आने वाली नस्लें उठायेगी, ये तय मानकर चलिये।
मुख्य संपादक ट्रेन्डी न्यूज़
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